ये कहानी है मेडेलीन स्लेड की, जिनके पिता एक ब्रिटिश एडमिरल थे। 22 नवंबर 1892 को इंग्लैंड में जन्मी मेडेलीन अपने पिता के साथ 1908 में भारत आई। भारत की पारंपरिक और सांस्कृतिक समृद्धता, सादापन और निश्चल प्रेम ने मेडेलीन को काफी आकर्षित किया।
लेकिन उन्हें तब भारत में ज्यादा रहने का मौका नहीं मिला, वे 2 साल बाद अपने पिता के साथ ब्रिटेन वापस लौट गईं। कुछ सालों बाद मेडेलीन नोबेल प्राइज विनर फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां के संपर्क में आईं। रोमां रोलां वही लेखक थे जिन्होंने महात्मा गांधी की जीवनी लिखी थी। उन्होंने गांधी के बारे में उनसे सुना और उनकी गांधी पर लिखी किताब पढ़ी, मेडेलीन पहले ही भारत से काफी प्रभावित थीं और गांधी के बारे में पढ़ने के बाद उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने महात्मा गांधी को पत्र लिखा कि वे उनसे मिलना चाहती हैं। अक्टूबर 1925 में मेडेलीन मुंबई के रास्ते, अहमदाबाद पहुंची, मेडेलीन ने गांधी जी से अपनी पहली मुलाकात को कुछ इस तरह लिखा है- “जब मैं वहां पहुंची, तो सामने से एक दुबला-पतला शख्स सफेद गद्दी से उठकर मेरी तरफ बढ़ रहा था। मैं जानती थी कि वे बापू थे। मैं हर्ष और श्रद्धा से भर गई थी। मैं बापू के पैरों में झुककर बैठ जाती हूं। बापू मुझे उठाते हैं और कहते हैं – तुम मेरी बेटी हो।” इसके बाद मेडेलीन ने कभी ब्रिटेन की तरफ नहीं देखा। महात्मा गांधी ने उन्हें ‘मीराबेन’ नाम दिया। मीराबेन बापू की सबसे करीबी मानी जाती थीं। ब्रिटिश मीडिया और राजनीति की मीराबेन को काफी समझ थी, इसका फायदा स्वतंत्रता आंदोलन में हुआ। साल 1930 के आस-पास भारत में आजादी की लड़ाई काफी तेज हो गई थी। अंग्रेजी हुकूमत ने कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर दिया, गांधी जी गिरफ्तार हो गए। भारतीय अखबारों पर सेंसरशिप लगा दिया गया। इस दौरान, मीराबेन ने सरकारी अत्यचारों की खबरों को दुनिया तक पहुंचाया। जिसकी बदौलत कई देश भारत के साथ खड़े हुए।
जब अंग्रेजी हुकूमत को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने मीराबेन (Mirabehn) को गिरफ्तार कर लिया। रिहा होने के बाद वे मुंबई आ गईं और वहीं से अंग्रेजों के खिलाफ काम करने लगीं। उन्हें एक साल के भीतर कई बार गिरफ्तार किया गया, कई यातनाएं दी गईं लेकिन उन्होंने आजादी के आंदोलन का साथ नहीं छोड़ा। भारत आजाद हो गया और मीराबेन हमेशा के लिए भारत की हो गईं। आजादी के बाद उन्होंने कृषि के क्षेत्र में सामाजिक कार्य किया। उन्होंने भारत में पहले किसान आश्रम की स्थापना की, उन्होंने पशुओं की सेवा में भी अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने ऋषिकेश में पशुलोक आश्रम की शुरूआत की। मीराबेन ने अपने जीवन के अंतिम क्षण वियना में गुजारे उन्होंने अपने अनुयायियों से ये बात कही थी कि उनका अंतिम संस्कार भारतीय विधि से की जाए। उनकी मृत्यु के बाद उनके सेवक रामेश्वर दत्त ने उनका अंतिम संस्कार किया। भारत में उनके योगदान को देखते हुए साल 1981 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। मीराबेन का जीवन जीवन न्याय और समाज की सेवा के लिए समर्पित रहा। उनके कार्यों ने उन्हें सदैव के लिए भारतीयों के दिल में अमर कर दिया है।
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